आरती को ‘आरात्रिक’ अथवा ‘आरार्तिक’ और ‘नीराजन’ भी कहते हैं। पूजा के अन्त में आरती की जाती है। पूजन में अज्ञानतावश यदि कोई कमी रह जाए, तो आरती से उसकी पूर्ति होती है। स्कन्दपुराण में भी वर्णन आया है..
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरेः ।।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे ।।
अर्थात, मंत्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से पूजन में पूर्णता आ जाती है।
आरती करने से पहले का मंत्र-
आरती करने से पहले कर्पूरगौरं मंत्र बोलना सही रहता है। मंत्र का पूरा अर्थ- जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव माता भवानी सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है।
नित्य पूजा में बोले जाने वाले मंत्र कौन कौन से हैं?
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु।।
साधारणतः पाँच बत्तियों अथवा कपूर जलाकर, शंख घन्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिए। आरती करते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे पांच बार घुमाएं व दो बार नाभि देश में, दो बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंगो पर घुमाएं। जिसका आशय यही है कि भगवान की प्रतिमा सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाये तथा उपासक उनका भली भाँति दर्शन कर सकें। यथार्थ में आरती, पूजन के अन्त में इष्टदेवता की प्रसन्नता व उनकी बलैया लेने के लिए की जाती है।